मध्यप्रदेश चुनाव: पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस की कसौटी, बड़ी चुनौती
लगभग 52 साल पहले इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ देश बचाओ’ का नारा दिया था. गरीबी उस समय भी ज्वलंत विषय था. अब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एमपी में ‘गरीब कल्याण महाभियान’ के जरिए चुनावी अभियान की शुरुआत कर दी है. गरीबी हटाओ से गरीबी कल्याण तक सियासी प्रण और रण का नजारा, चुनावी अभियान की कसौटी पर ही कसा जा सकता है.
20 साल की राज्य सरकार का रिपोर्ट कार्ड बीजेपी जारी कर रही है तो कांग्रेस से 53 साल का हिसाब मांग रही है. वक्तव्य और कागज पर गरीबी का परफॉर्मेंस और गरीब कल्याण के लिए पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस चुनावी चर्चा का केंद्र बिंदु बनना लोकतंत्र के लिए अहम पड़ाव कहा जाएगा. सस्ती बिजली, रेवड़ी योजनाएं, नगदी सहायताएं, गरीब कल्याण की बुनियादी आवश्यकता की पूर्ति नहीं करते. गरीबों को पढ़ाई लिखाई, रोजी रोटी और आवास के प्रबंध की सुविधाएं ही गरीब कल्याण की सच्ची अवधारणा को पूरा करते हैं.
लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की सांसे गरीब कल्याण के नारे के बिना पूरी नहीं हो सकतीं. पहले इसे केवल नारे के रूप में उपयोग राजनीतिक आदत सी बन गई थी. अब पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस और रिपोर्ट कार्ड के जरिए तथ्यों को सार्वजनिक करना, प्रयासों की ईमानदारी को रेखांकित करता है. 2018 में पिछले चुनाव के समय रिपोर्ट कार्ड की स्ट्रेटजी शायद नहीं अपनाई गई थी. यद्यपि राजनीतिक दलों ने अपने वचन पत्र और संकल्प पत्र के माध्यम से अपनी राजनीतिक उपलब्धियों और भविष्य की रणनीति का खुलासा जरूर किया था लेकिन सरकार की ओर से ऐसा रिपोर्ट कार्ड शायद पहली बार सामने लाया गया है.
एमपी में बीजेपी सरकार ने अपने लंबे कार्यकाल में कई योजनाओं के जरिए बड़ी आबादी को सरकार के साथ जोड़ने का काम किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जन कल्याण योजनाओं का तो आधार ही जनता को सीधे योजनाओं से जोड़ना और सीधे उन तक लाभ पहुंचाना रहा है. इसी कारण देश में पहली बार योजना के लाभार्थियों का एक अलग वर्ग वोटर के रूप में विकसित हो गया है. तमाम राजनीतिक विश्लेषक भी यह कहते रहे हैं कि लाभार्थियों के वर्ग ने चुनाव परिणामों को बीजेपी के पक्ष में प्रभावित किया है. यही कारण है कि बीजेपी आगामी चुनाव में गरीब और लाभार्थी योजनाओं को अपने चुनावी अभियान का महत्वपूर्ण फोकस रखना चाहती है.
एमपी में कांग्रेस लंबे समय तक सरकार में रही है. उसके पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत उल्लेखनीय नहीं माना जाता है. दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में 1993 में बनी कांग्रेस की सरकार 10 साल बाद 2003 में हुए चुनावों में बहुत बुरी तरह से पराजित हुई थी. 230 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस केवल 38 सीटें जीतने में सफल हुई थी. 2003 के बाद दो साल में उमा भारती और बाबूलाल गौर के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफों के बाद शिवराज सिंह चौहान द्वारा बीजेपी को मध्यप्रदेश में सत्ता में रहने का अभूतपूर्व रिकॉर्ड बनाया गया है. 2018 में सीटों में पिछड़ने के बाद भी मतों की दृष्टि से बीजेपी कांग्रेस से करीब एक लाख मत ज़्यादा पाने में सफल रही थी.
कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की संयुक्त टीम ने कांग्रेस को सत्ता में पहुंचाया था. इस टीम में ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थन में विभाजन हो गया और फिर से बीजेपी की सरकार बन गई. अब एमपी में आगामी चुनाव पहले ऐसे चुनाव हैं जब पांच साल के कार्यकाल में कांग्रेस और बीजेपी दोनों सरकारों के परफॉर्मेंस को देखते हुए जनादेश को अपना फैसला करना है.
कांग्रेस की 15 महीनों की सरकार के परफॉर्मेंस को चुनाव में स्मरण दिलाने के लिए शायद बीजेपी ने पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस और रिपोर्ट कार्ड का मुद्दा सामने प्रस्तुत किया है. डेवलपमेंट की राजनीति में कांग्रेस के मुकाबले में बीजेपी आगे ही दिखाई पड़ती है. अमित शाह ने कांग्रेस के घोटालों को भी पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस से जोड़ा है. अब तो लगभग यह ऐसा ही दिखाई पड़ रहा है कि अगले चुनाव में कमलनाथ और शिवराज सिंह के चेहरे और परफॉर्मेंस पर जनादेश की मुहर लगेगी.
अमित शाह ने कांग्रेस की सरकारों में हुए भ्रष्टाचार की लिस्ट में कुछ ऐसे भ्रष्टाचार गिनाये जिसमें सीधे तौर पर कमलनाथ का नाम जुड़ता है. भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा भले ही नहीं बन पाता हो लेकिन नेताओं के चेहरे जरूर भ्रष्टाचार और सदाचार की गवाही देते हैं. केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा कि बीजेपी राजनीति में बदले की कार्रवाई नहीं करती, जांच की प्रक्रिया कानूनी ढंग से काम करती है. भ्रष्टाचार के मामलों में जटिल और लंबी जांच और कानूनी प्रक्रिया के कारण लंबे समय तक दोषी लोगों को दंड नहीं होने से जनमानस में भ्रम की स्थितियां बनती हैं.
पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस और पॉलिटिक्स ऑफ़ करप्शन को एमपी के विधानसभा चुनाव में मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है. बीजेपी परफॉर्मेंस को अपना सबसे बड़ा चुनावी हथियार मान रही है तो कांग्रेस करप्शन के आरोपों से सरकार को कटघरे में खड़ा कर कर रही है. सरकार और विपक्ष की राजनीति लोकतंत्र में बराबर महत्वपूर्ण और सम्मान रखती है. विपक्ष की राजनीति जनभावना के नजरिए से ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जाती है. विपक्ष की नाकारा राजनीति लोकतंत्र पर कयामत के लिए पर्याप्त है. चुनाव के समय सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना विपक्षी राजनीति का सबसे बड़ा नकारापन कहा जाएगा.
अगर सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार की कोई गतिविधियां चल रही थीं तो विपक्ष आखिर क्यों आँखें मूंदे रहा था? विपक्ष ने पूरे समय भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच और सरकार के नुमाइंदों को कटघरे में खड़ा करने के लिए कानूनी हथियार का उपयोग क्यों नहीं किया? जन आंदोलन के जरिए सरकार को दबाव में लाने की राजनीति नहीं करके विपक्ष कहीं विपक्षी लोकतंत्र का आनंद लेने में तो नहीं मशगूल था?
एमपी के विधानसभा चुनाव कमलनाथ और शिवराज के चेहरे और परफॉर्मेंस के साथ ही बीजेपी और कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के परफॉर्मेंस पर भी निर्भर रहेंगे. इस मामले में भी कांग्रेस कमजोर साबित हो रही है. बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के फेस और परफॉर्मेंस पर जन विश्वास को देखते हुए ‘एमपी के मन में मोदी’ राजनीतिक अभियान भी शुरू किया है. केवल कमलनाथ और शिवराज के चेहरे और परफॉर्मेंस की तुलना ही अगर की जाए तो संभावित जनादेश के नतीजे का आकलन करना बहुत कठिन नहीं होगा.
शिवराज के साथ जहां उम्र है, वहीं कमलनाथ बुजुर्ग नेताओं में शामिल हो गए हैं. शिवराज का ट्रैक रिकॉर्ड कांग्रेस को दो चुनावों में करारी शिकस्त देना रहा है. 2018 में भी मतों की दृष्टि से शिवराज का परफॉर्मेंस निराशाजनक नहीं कहा जा सकता है. शिवराज सिंह पर भ्रष्टाचार के दाग लगाने में भी कांग्रेस सफल नहीं हो सकी है. उनका बेदाग चेहरा कांग्रेस के संभावित चेहरों पर भारी दिखाई पड़ता है.
अमित शाह का इंटरवेंशन एमपी बीजेपी को नई ताकत और ऊर्जा देता हुआ दिखाई पड़ रहा है. कांग्रेस के राजनीतिक कुबेर कमलनाथ और आम आदमी के नेता शिवराज सिंह चौहान के बीच पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस पर जनादेश में दोनों दलों के परफॉर्मेंस का निर्धारण करेगा.लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की सांसे गरीब कल्याण के नारे के बिना पूरी नहीं हो सकतीं. पहले इसे केवल नारे के रूप में उपयोग राजनीतिक आदत सी बन गई थी. अब पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस और रिपोर्ट कार्ड के जरिए तथ्यों को सार्वजनिक करना, प्रयासों की ईमानदारी को रेखांकित करता है. 2018 में पिछले चुनाव के समय रिपोर्ट कार्ड की स्ट्रेटजी शायद नहीं अपनाई गई थी. यद्यपि राजनीतिक दलों ने अपने वचन पत्र और संकल्प पत्र के माध्यम से अपनी राजनीतिक उपलब्धियों और भविष्य की रणनीति का खुलासा जरूर किया था लेकिन सरकार की ओर से ऐसा रिपोर्ट कार्ड शायद पहली बार सामने लाया गया है.
एमपी में बीजेपी सरकार ने अपने लंबे कार्यकाल में कई योजनाओं के जरिए बड़ी आबादी को सरकार के साथ जोड़ने का काम किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जन कल्याण योजनाओं का तो आधार ही जनता को सीधे योजनाओं से जोड़ना और सीधे उन तक लाभ पहुंचाना रहा है. इसी कारण देश में पहली बार योजना के लाभार्थियों का एक अलग वर्ग वोटर के रूप में विकसित हो गया है. तमाम राजनीतिक विश्लेषक भी यह कहते रहे हैं कि लाभार्थियों के वर्ग ने चुनाव परिणामों को बीजेपी के पक्ष में प्रभावित किया है. यही कारण है कि बीजेपी आगामी चुनाव में गरीब और लाभार्थी योजनाओं को अपने चुनावी अभियान का महत्वपूर्ण फोकस रखना चाहती है.
एमपी में कांग्रेस लंबे समय तक सरकार में रही है. उसके पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत उल्लेखनीय नहीं माना जाता है. दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में 1993 में बनी कांग्रेस की सरकार 10 साल बाद 2003 में हुए चुनावों में बहुत बुरी तरह से पराजित हुई थी. 230 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस केवल 38 सीटें जीतने में सफल हुई थी. 2003 के बाद दो साल में उमा भारती और बाबूलाल गौर के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफों के बाद शिवराज सिंह चौहान द्वारा बीजेपी को मध्यप्रदेश में सत्ता में रहने का अभूतपूर्व रिकॉर्ड बनाया गया है. 2018 में सीटों में पिछड़ने के बाद भी मतों की दृष्टि से बीजेपी कांग्रेस से करीब एक लाख मत ज़्यादा पाने में सफल रही थी.
कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की संयुक्त टीम ने कांग्रेस को सत्ता में पहुंचाया था. इस टीम में ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थन में विभाजन हो गया और फिर से बीजेपी की सरकार बन गई. अब एमपी में आगामी चुनाव पहले ऐसे चुनाव हैं जब पांच साल के कार्यकाल में कांग्रेस और बीजेपी दोनों सरकारों के परफॉर्मेंस को देखते हुए जनादेश को अपना फैसला करना है.
कांग्रेस की 15 महीनों की सरकार के परफॉर्मेंस को चुनाव में स्मरण दिलाने के लिए शायद बीजेपी ने पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस और रिपोर्ट कार्ड का मुद्दा सामने प्रस्तुत किया है. डेवलपमेंट की राजनीति में कांग्रेस के मुकाबले में बीजेपी आगे ही दिखाई पड़ती है. अमित शाह ने कांग्रेस के घोटालों को भी पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस से जोड़ा है. अब तो लगभग यह ऐसा ही दिखाई पड़ रहा है कि अगले चुनाव में कमलनाथ और शिवराज सिंह के चेहरे और परफॉर्मेंस पर जनादेश की मुहर लगेगी.
अमित शाह ने कांग्रेस की सरकारों में हुए भ्रष्टाचार की लिस्ट में कुछ ऐसे भ्रष्टाचार गिनाये जिसमें सीधे तौर पर कमलनाथ का नाम जुड़ता है. भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा भले ही नहीं बन पाता हो लेकिन नेताओं के चेहरे जरूर भ्रष्टाचार और सदाचार की गवाही देते हैं. केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा कि बीजेपी राजनीति में बदले की कार्रवाई नहीं करती, जांच की प्रक्रिया कानूनी ढंग से काम करती है. भ्रष्टाचार के मामलों में जटिल और लंबी जांच और कानूनी प्रक्रिया के कारण लंबे समय तक दोषी लोगों को दंड नहीं होने से जनमानस में भ्रम की स्थितियां बनती हैं.
पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस और पॉलिटिक्स ऑफ़ करप्शन को एमपी के विधानसभा चुनाव में मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है. बीजेपी परफॉर्मेंस को अपना सबसे बड़ा चुनावी हथियार मान रही है तो कांग्रेस करप्शन के आरोपों से सरकार को कटघरे में खड़ा कर कर रही है. सरकार और विपक्ष की राजनीति लोकतंत्र में बराबर महत्वपूर्ण और सम्मान रखती है. विपक्ष की राजनीति जनभावना के नजरिए से ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जाती है. विपक्ष की नाकारा राजनीति लोकतंत्र पर कयामत के लिए पर्याप्त है. चुनाव के समय सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना विपक्षी राजनीति का सबसे बड़ा नकारापन कहा जाएगा.
अगर सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार की कोई गतिविधियां चल रही थीं तो विपक्ष आखिर क्यों आँखें मूंदे रहा था? विपक्ष ने पूरे समय भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच और सरकार के नुमाइंदों को कटघरे में खड़ा करने के लिए कानूनी हथियार का उपयोग क्यों नहीं किया? जन आंदोलन के जरिए सरकार को दबाव में लाने की राजनीति नहीं करके विपक्ष कहीं विपक्षी लोकतंत्र का आनंद लेने में तो नहीं मशगूल था?
एमपी के विधानसभा चुनाव कमलनाथ और शिवराज के चेहरे और परफॉर्मेंस के साथ ही बीजेपी और कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के परफॉर्मेंस पर भी निर्भर रहेंगे. इस मामले में भी कांग्रेस कमजोर साबित हो रही है. बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के फेस और परफॉर्मेंस पर जन विश्वास को देखते हुए ‘एमपी के मन में मोदी’ राजनीतिक अभियान भी शुरू किया है. केवल कमलनाथ और शिवराज के चेहरे और परफॉर्मेंस की तुलना ही अगर की जाए तो संभावित जनादेश के नतीजे का आकलन करना बहुत कठिन नहीं होगा.
शिवराज के साथ जहां उम्र है, वहीं कमलनाथ बुजुर्ग नेताओं में शामिल हो गए हैं. शिवराज का ट्रैक रिकॉर्ड कांग्रेस को दो चुनावों में करारी शिकस्त देना रहा है. 2018 में भी मतों की दृष्टि से शिवराज का परफॉर्मेंस निराशाजनक नहीं कहा जा सकता है. शिवराज सिंह पर भ्रष्टाचार के दाग लगाने में भी कांग्रेस सफल नहीं हो सकी है. उनका बेदाग चेहरा कांग्रेस के संभावित चेहरों पर भारी दिखाई पड़ता है.
अमित शाह का इंटरवेंशन एमपी बीजेपी को नई ताकत और ऊर्जा देता हुआ दिखाई पड़ रहा है. कांग्रेस के राजनीतिक कुबेर कमलनाथ और आम आदमी के नेता शिवराज सिंह चौहान के बीच पॉलिटिक्स ऑफ़ परफॉर्मेंस पर जनादेश में दोनों दलों के परफॉर्मेंस का निर्धारण करेगा.