April 16, 2025

होली के त्यौहार पर जानिए सतयुग की है सबसे पुरानी और प्रचलित कथा

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होली मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस प्रश्न पर ज्योतिषाचार्य कहते हैं, इस बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। किंतु, सबसे पुरानी और प्रचलित कथा सतयुग है। ऐसे में कह सकते हैं कि होली सतयुग से मनाई जाती रही है। वह आगे कहते हैं, चार युग होते हैं- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। हमारे शास्त्रों में 1 युग लाखों वर्षों का बताया गया है। सतयुग करीब 17 लाख 28 हजार वर्ष, त्रेतायुग 12 लाख 96 हजार वर्ष, द्वापर युग 8 लाख 64 हजार वर्ष, तो कलियुग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होना है। इस हिसाब से ही गणना कहती है कि होली 39 लाख वर्ष पहले, सतयुग से मनाई जा रही है। तब, भगवान ने नृसिंह अवतार लिया था और हिरण्यकश्यप का वध किया था।

ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, त्रिदेव इस सृष्टि का संचालन करते हैं। ब्रह्मा सृजक हैं, विष्णु पालनहार, तो शिव संहारक। इसके साथ ही विष्णु संतुलन बनाए रखने के लिए भी समय-समय पर अवतार लेते रहते हैं। गरुड़ पुराण में भगवान विष्णु के 10 अवतारों का जिक्र है। सतयुग में उन्होंने मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह और नृसिंह अवतार लिया, तो त्रेता में वामन, परशुराम और श्रीराम का। द्वापर में वह श्रीकृष्ण रूप में भक्तों के बीच आए। कलियुग में वह कल्कि अवतार लेंगे। वह समय कलियुग और सतयुग के संधिकाल का होगा। अभी तो कलियुग की शुरुआत ही हुई है। प्रभु अपने सभी अवतारों में दुष्टों का संहार करते हैं, तो अपनी लीलाओं से जीवन जीने का तरीका भी सिखाते हैं। होली का त्योहार भी कुछ ऐसा ही है, जिसका आरंभ सतयुग में भगवान के नृसिंह अवतार के समय हुआ।

क्या है सबसे प्रचलित कथा?

ज्योतिषाचार्य कहते हैं, सतयुग में एक अति पराक्रमी दैत्य राजा था- हिरण्यकश्यप। हिरण्यकश्यप के भाई हिरण्याक्ष का भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर वध किया था। इस कारण हिरण्यकश्यप उन्हें दुश्मन मानता था। हिरण्यकश्यप का विवाह कयाधु से हुआ, जिससे उसे प्रह्लाद नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। हिरण्यकश्यप ने मनचाहे वरदान के लिए ब्रह्मा की तपस्या शुरू की। इस दौरान देवताओं ने उसकी नगरी पर आक्रमण कर दिया और वहां अपना शासन स्थापित कर लिया। उस समय देवर्षि नारद मुनि ने कयाधु की रक्षा की और अपने आश्रम में स्थान दिया। वहीं पर हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद का जन्म हुआ। देवर्षि नारद मुनि की संगत में रहने के कारण प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त बन गया। उधर, कई वर्षों तक तपस्या के बाद हिरण्यकश्यप को ब्रह्मा ने दर्शन दिए। हिरण्यकश्यप ने वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु मनुष्य या पशु के हाथों न हो, न किसी अस्त्र-शस्त्र से, ना दिन व रात में, ना भवन के बाहर और ना ही अंदर, न भूमि ना आकाश में हो मेरी मृत्यु हो। कुल मिलाकर, अपनी समझ में उसने अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दे दिया। किंतु, इसके बाद वह निरंकुश हो गया। वह ऋषि-मुनियों की हत्या करवाने लगा और स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। किंतु, स्वयं उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्ति में लीन रहता। यह बात हिरण्यकश्यप को पता चली तो वह गुस्से से फट पड़ा। बार-बार समझाने के बाद भी प्रह्लाद ने जिद नहीं छोड़ी तो उसने उसे मारने का फ़ैसला कर लिया।

अब शुरू होती है होलिका की कहानी

हिरण्यकश्यप की एक बहन थी होलिका। होलिका को भी भगवान ब्रह्मा से एक वरदान मिला था। यह कि उसे अग्नि नहीं जला सकती। हिरण्यकश्यप ने होलिका को कहा कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, ताकि प्रह्लाद भाग न सके और वह उसी अग्नि में जलकर ख़ाक हो जाए। होलिका ने किया तो ऐसा ही, किंतु वह ख़ुद भस्म हो गई और प्रह्लाद बच गया। कहा जाता है कि होलिका के एक वस्त्र में न जलने की शक्तियां समाहित थीं, किंतु भगवान विष्णु की कृपा से चली तेज आंधी से वह वस्त्र होलिका से हटकर, प्रह्लाद के शरीर से लिपट गया था। होलिका के जलने और प्रह्लाद के बच जाने पर नगरवासियों ने उत्सव मनाया, जिसे छोटी होली के रूप में भी जानते हैं। इसके बाद जब यह बात फैली तो विष्णु भक्तों ने अगले दिन और भी भव्य तरीके से उत्सव मनाया। होलिका से जुड़ा होने के कारण आगे इस उत्सव का नाम ही होली पड़ गया। उधर, हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए उसे एक खंभे में बांध दिया। वह प्रह्लाद को मारने ही वाला था कि भगवान विष्णु खंभा फाड़कर नरसिंह अवतार में प्रकट हुए। उन्होंने हिरण्यकश्यप को उसके भवन की चौखट पर ले जाकर, संध्या के समय, अपने गोद में रखकर नाखूनों की सहायता से उसका वध कर दिया। इस तरह ब्रह्मा का वरदान भी नहीं टूटा और आततायी का अंत हो गया। भगवान को भक्त प्रह्लाद को उसका उत्तराधिकारी बना दिया।

भगवान शिव और कामदेव की कथा

सबसे प्रचलित कथा सतयुग में होलिका दहन की ही है, लेकिन बाद के युगों में भी यह उत्सव अलग-अलग समय पर मनाया जाता रहा और इससे अन्य कथाएं भी जुड़ती गईं। होली की एक कहानी कामदेव की भी है। पार्वती शिव से विवाह करने के लिए उनकी तपस्या में लीन थीं लेकिन खुद ध्यानमग्न शिव ने काफी समय तक ध्यान नहीं दिया। ऐसे में कामदेव से रहा न गया और उन्होंने भगवान शिव पर पुष्प बाण चला दिया। ध्यान भंग होने से शिव को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी और कामदेव भस्म हो गए। कामदेव के भस्म होने पर उनकी पत्नी रति रोने लगीं और कामदेव को जीवित करने की गुहार लगाई। इसके अगले दिन क्रोध शांत होने पर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर किया। माना जाता है कि कामदेव के भस्म होने पर होलिका जलाई जाती है, तो उनके जीवित होने की खुशी में रंगों का त्योहार होली मनाई जाती है।

महाभारत काल की कथा जानते हैं?

महाभारत काल, यानि द्वापर में युधिष्ठिर को प्रभु श्रीकृष्ण ने एक कहानी सुनाई। एक बार श्रीराम के पूर्वज रघु के शासन मे एक असुर महिला थी। उसे कोई नहीं मार सकता था, क्योंकि उसे एक वरदान था। एक दिन, गुरु वशिष्ठ ने बताया कि उसे मारा जा सकता है, यदि बच्चे अपने हाथों में लकड़ी के छोटे टुकड़े लेकर शहर के बाहरी इलाके के पास चले जाएं और सूखी घास के साथ उनका ढेर लगाकर जला दें। फिर, उसके चारों ओर परिक्रमा करें, नृत्य करें, ताली बजाएं, गाना गाएं और नगाड़े बजाएं। फि़र ऐसा ही किया गया और वह असुर मारी गई। कहा जाता है कि इसके बाद से बुराई पर जीत के प्रतीक के रूप में होली मनाई जाती है।

पूतना से क्या रिश्ता?

होली सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई द्वापर युग, यानी श्रीकृष्ण के युग में। पौराणिक कथा के अनुसार, कंस को पता चला कि श्रीकृष्ण गोकुल में हैं, लेकिन यह नहीं पता था कि कहां। इसके बाद उसने पूतना नामक राक्षसी को गोकुल में जन्म लेने वाले सभी बच्चों को मारने को कहा। पूतना वेश बदलकर स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान करा देती थी। लेकिन, कृष्ण ने दुग्धपान करते हुए ही पुतना के प्राण खींच लिए। पूतना के वध पर खुशियां मनाई गईं, और यह एक कहानी भी होली से जुड़ गई।

होली का क्या है महत्व?

हिंदू धर्म के सभी त्योहार में खुशियां हैं, लेकिन इसके पीछे गंभीर संदेश भी है। जैसे, दिवाली अधर्म पर धर्म के विजय का प्रतीक है, वैसे ही होली भी है। इस त्योहार का स्पष्ट संदेश है कि घमंड अच्छा नहीं होता। ईश्वर से बढ़कर कोई नहीं होता। जो भी विधि के विधान को नहीं मानता, उसे कोई बचा नहीं सकता, जैसे होलिका या हिरण्यकश्यप वरदान के बावजूद भी मारे गए।

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