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बीजेपी के जाति जनगणना कराने का ऐलान, जिसका लक्ष्य सामाजिक समीकरणों को साधना और चुनावी रणनीति को मजबूत करना

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नई दिल्ली
 बीजेपी ने एक बार फिर अपनी राजनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना करवाने की घोषणा की है। यह फैसला सिर्फ आंकड़ें जुटाने के लिए नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से सामाजिक इंजीनियरिंग, चुनावी रणनीति और वैचारिक संतुलन का भी समीकरण बिठाने का प्रयास किया जा रहा है। यह कदम ऐसे समय पर उठाया गया है, जब देश की राजनीति में 'मंडल-कमंडल' की बहस को फिर से हवा देने की कोशिश हो रही थी। ऐसे में यह समझना चुनावी और राजनीतिक रणनीति को देखते हुए बहुत जरूरी है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र की एनडीए सरकार ने यह कदम अचानक किन 5 प्रमुख वजहों से लिया है और कैसे यह उसके लिए एक 'गेमचेंजर' साबित हो सकता है।
2024 के लोकसभा चुनाव का नतीजा

2014 में नरेंद्र मोदी के पहले लोकसभा चुनाव से लेकर 2019 तक उनके कार्यकाल के दूसरे चुनाव तक बीजेपी ने ओबीसी (OBC),अति-पिछड़ी जातियों (EBC) और अनूसूचित जातियों (SC) को जोड़कर एक मजबूत सामाजिक समीकरण खड़ा किया था। लेकिन, 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा का यह वोट बैंक बिखर गया और इन वर्गों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस और INDIA ब्लॉक की ओर झुक गया, जिससे बीजेपी के 400 पार वाला सपना चकनाचूर हो गया। बीजेपी और एनडीए को इसके चलते खासकर यूपी,राजस्थान, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे बड़े राज्यों में तगड़ा झटका लगा। ऐसे में जाति जनगणना वाला दांव इन जातियों की उन उपेक्षित भावनाओं पर मरहम लगाने का प्रयास है।

ओबीसी को सीधा संदेश देने का प्रयास

बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ओबीसी होने वाले तथ्य को अबतक विपक्ष के पिछड़े वाले दांव को कुंद करने के लिए इस्तेमाल करती रही है। जब बिहार में जातिगत सर्वे करवाया गया था, तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी जेडीयू एनडीए में नहीं थे। अलबत्ता तब भी बीजेपी ने आधिकारिक रूप से उस जातिगत सर्वे का समर्थन किया था। अब मोदी सरकार देशभर में जाति जनगणना का दांव चलकर प्रधानमंत्री और बिहार के सीएम नीतीश के पिछड़ा पृष्टभूमि को और मजबूती से भुनाने की कोशिश कर रही है। वैसे भी मोदी सरकार राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के अपने फैसले का हमेशा जिक्र करती रही है। अब इस फैसले से उसका काम और आसान हो सकता है कि असल में पीएम मोदी खुद पिछड़े समाज से तो हैं ही, वह ओबीसी समाज के मसीहा के तौर पर भी काम कर रहे हैं।

राज्यों की राजनीति पर भारी पड़ने की कोशिश

बीजेपी को मालूम पड़ चुका था कि अगर केंद्र जाति जनगणना को लेकर सुस्त रहा, तो विपक्ष शासित राज्य सरकारें इसे अपने-अपने ढंग से लागू करके सामाजिक समीकरणों को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश सकती हैं। तेलंगाना पहले ही इस दिशा में सक्रिय हो चुका है। कर्नाटक में कांग्रेस सरकार भी अपने दांव लगाने की कोशिशों में जुटी है और झारखंड में भी ‘सरना कोड’ की मांग जोर पकड़ रही है। ऐसे में केंद्र की ओर से इसे राष्ट्रीय स्तर पर करवाने का एलान करके, बीजेपी सरकार ने विपक्ष की राजनीति पर बढ़त बनाने वाली चाल चल दी है।

नया प्रयोग करने की कोशिश

2014 में जब से मोदी सरकार आई है, उसकी अनेकों कल्याणकारी योजनाएं, सामाजिक ताने-बाने को भी मजबूत करने के लिए बनाई गई हैं। ईडब्ल्यूएस कोटा और विश्वकर्मा योजना इसका सबसे बेहतरी उदाहरण है। इसी तरह से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए भी अनेकों योजनाएं चल रही हैं, जिनके माध्यम से इन वर्गों के उत्थान का भी काम हो रहा है, वहीं इसके माध्यम से सरकार इन वर्गों के बीच पहुंच भी पहुंची है। लेकिन, जाति जनगणना के माध्यम से पार्टी जातियों में बंटे भारतीय समाज को सीधे तौर पर साधने की कोशिश कर रही है, जिसे अब सहेज कर रखना उसके लिए बहुत बड़ी चुनौती बन चुकी थी। क्योंकि, उज्जवला योजना, जनधन योजना जैसी अनेकों ऐसी योजनाएं हैं, जिनके माध्यम से भाजपा सरकार ने खुद को समाज के विशेष वर्गों के नजदीक पहुंचाया है, लेकिन अब उसमें भी जातियों के आधार पर दिक्कतें बढ़ने लगी थीं, जिसके लिए नया कार्ड चलना जरूरी लग रहा था।

हिंदुत्व की सियासत पर जाति की चाशनी

बीजेपी की राजनीति लंबे समय से हिंदुत्व के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि सिर्फ धार्मिक ध्रुवीकरण अब पार्टी के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए अब पार्टी हिंदुत्व पर भी सामाजिक न्याय और पिछड़ों की चुनावी चाशनी लगाने की कोशिश कर रही है। इसका मकसद एक ऐसे व्यापक सामाजिक समीकरण को तैयार करना है, जिसमें धार्मिक और जातिगत दोनों स्तरों पर समर्थन हासिल हो सके। हालांकि, बीजेपी की यह सोच समझी रणनीति चुनावी फ्रंट पर कितना काम करती है, यह इस समय का सबसे बड़ा सवाल है।

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