करोड़ों की रॉयल्टी नुकसान पर वन -राजस्व सीमा विवाद में ढाई दशक से अटका है कटनी की झिन्ना खदान
- डीएम न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक नहीं हो पा रहा है फैसला
20 गांव के 2000 लोगों के रोजगार पर ब्रेक
Katni’s Jhinna mine is stuck for two and a half decades in forest revenue border dispute over royalty loss worth crores.
भोपाल। वन-राजस्व सीमा विवाद के चलते 30 में कटनी के झिन्ना की खदान का प्रकरण का निराकरण नहीं हो पाया है। इस मसले पर राज्य शासन और वन विभाग असमंजस में है। फरवरी 2020 में मुख्य सचिव ने स्पष्ट निर्देश दे चुके हैं कि इस प्रकरण में न्यायालयीन प्रक्रिया से प्रदेश के राजस्व में सतत हानि हो रही है। बावजूद इसके, 2017 से सुप्रीम कोर्ट में कटनी का झिन्ना खदान विवाद लंबित है। इससे जहां सरकार को करोड़ों की रेती का नुकसान हो रहा है वही 20 गांव के 2000 से अधिक लोग रोजगार से मेहरूम है। दिलचस्प पहलू यह है कि समय-समय पर अधिकारियों के सुर आदेश बदलते रहे।
शिकायती पत्र के मुताबिक, कटनी के खनन कारोबारी आनंद गोयनका मेसर्स सुखदेव प्रसाद गोयनका को मध्य प्रदेश की तत्कालीन दिग्विजय सरकार के कार्यकाल में 1994 से 2014 तक की अवधि के लिए 48.562 हेक्टेयर भूमि पर खनिज करने का पट्टा मिला था। खनिज पट्टा आवंटित होने की पीछे भी बहुत कुछ छिपा है। दरअसल मध्य प्रदेश शासन ने ग्राम झिन्ना तहसील ढीमरखेड़ा जिला कटनी के वन क्षेत्र की 48.562 हेक्टेयर भूमि पुराना खसरा नम्बर 310, 311, 313, 314/1, 314/2, 315, 316, 317, 318, 265, 320 में खनिज के लिए एक अप्रैल 1991 में 1994 से लेकर 2014 तक की अवधि के लिए निमेष बजाज के पक्ष में खनिज पट्टा स्वीकृत किया था। जिसे वर्ष 1999 में मध्य प्रदेश शासन के खनिज विभाग के आदेश से 13 जनवरी 1999 को उक्त खनिज पट्टा मेसर्स सुखदेव प्रसाद गोयनका प्रोप्राइटर आनंद गोयनका के पक्ष में हस्तांतरित किया गया। लेकिन साल 2000 में वन मंडल अधिकारी कटनी के पत्र के आधार पर कलेक्टर कटनी ने आदेश पारित कर लेटेराइट फायर क्ले और अन्य खनिज के खनन पर रोक लगा दी थी।
खदान से संबंधित फैक्ट फाइल
- सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में प्रकरण केंद्रीय साधिकार कमेटी (सीईसी) को जांच रिपोर्ट देने के लिए निर्देशित किया।
- सीईसी ने अपने जांच प्रतिवेदन में उल्लेख किया कि आवंटित खनिज पट्टे की भूमि राजस्व भूमि ही है।
- सीईसी के आदेश के बाद सितंबर 2019 में कलेक्टर कटनी के समक्ष डीएफओ द्वारा भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 17 के अंतर्गत अपील की।
- फरवरी 2020 में मुख्य सचिव ने स्पष्ट निर्देश दिए कि इस प्रकरण में न्यायालयीन प्रक्रिया से प्रदेश के राजस्व में सतत हानि हो रही है। जबकि विचारण न्यायालय, उच्च न्यायालय एवं वन व्यवस्थापन अधिकारी द्वारा विस्तृत आदेश पारित करते हुए वन विभाग का दावा खारिज किया गया है। उच्चतम न्यायालय में एस०एल०पी० दायर करते समय भी विधि विभाग द्वारा अपने स्वयं के जोखिम पर ही दायर करने का परामर्श दिया था। वन विभाग द्वारा दायर याचिकाओं में कोई ठोस आधार या नया तथ्य भी नहीं है। ऐसी स्थिति में मुख्य सचिव द्वारा निर्देशित किया गया कि वन विभाग उल्लेखित दोनों याचिकाओं / प्रकरणों की नियमानुसार वापसी किये जाने हेतु आवश्यक कार्यवाही करें। इस संबंध में विधि विभाग एवं राजस्व विभाग के अभिमत प्राप्त कर त्वरित कार्यवाही की जाये। मुख्य सचिव ने इस प्रकार के अन्य विवादों के स्थायी हल निकालने हेतु विभाग को आवश्यक प्रस्ताव तैयार करने के निर्देश दिये।
- डीएफओ कटनी ने 2021 में कलेक्टर न्यायालय में एक शपथ पत्र देकर अपील वापस ले ली।
- 2022 मैं तत्कालीन प्रमुख सचिव वन अशोक वर्णवाल ने एसएलपी वापस लेने का निर्णय लिया। इसके वापस लेने के लिए याचिका तैयार होकर शासकीय अधिवक्ता सलिल चौधरी के पास भेजा गया किन्तु सुप्रीम कोर्ट में उसे प्रस्तुत नहीं किया गया। 2022 से एसएलपी वापस लेने की एक्सरसाइज शुरू होती है और फिर थम जाती है। यह सतत प्रक्रिया जारी है।
नौकरशाह और आईएफएस अफसर के सुर बदलते रहे
इस मामले में सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि आईएएस अफसर हो या फिर आईएफएस समय-समय पर सभी के सुर बदलते रहे। मसलन जब अपर मुख्य सचिव वन अशोक वर्णवाल दूसरी बार वन मंत्रालय संभाला तो एक आदेश जारी कर पूर्व एसीएस वन जेएन कंसोटिया के उस आदेश को पलट दिया, जिसमें कटनी जिले की तहसील ढीमरखेड़ा के ग्राम झिन्ना की खदान के मामले में सुप्रीम कोर्ट से एसएलपी वापस लेने का आदेश दिया था। अपने आदेश को तत्काल अमल में लाने के लिए कंसोटिया ने बाकायदा डीएफओ कटनी को कारण बताओं नोटिस की तलब किया था। यहां यह भी तथ्य भी गौरतलब है कि जब वर्णवाल प्रमुख सचिव वन थे तब उन्होंने भी एसएलपी वापस लेने का आदेश जारी किया था। अब वही बता सकते है कि वे तब सही थे या फिर अब..? फिलहाल पिछले महीने वन विभाग के अपर मुख्य सचिव अशोक वर्णवाल ने वन मुख्यालय को निर्देश दिये हैं कि यदि यह केस अब तक वापस नहीं लिया गया है तो केस वापस लेने की कार्रवाई आगामी आदेश तक रोक दी जाये। वर्णवाल के आदेश के बाद जंगल महकमे में लाख टके का सवाल उठ रहा है कि आखिर किस अदृश्य शक्ति के दबाव में आकर पूर्व एसीएस कंसोटिया ने एसएलपी वापस लेने का आदेश जारी किया था। इसी प्रकार रिटायर्ड आईएफएस अधिकारी जेपी शर्मा जब भू-अभिलेख शाखा में एपीसीसीएफ थे तब उन्हें विवादित खदान भूमि वन भूमि का हिस्सा दिखा करती थी पर जब रिटायर हो गए तो उन्हें भी विवादित भूमि राजस्व भूमि नजर आने लगी है।
अफसरों की कमेटी ने लिया था एसएलपी वापस लेने का निर्णय
एसएलपी वापस लेने संबंधित आदेश जारी करने के पूर्व 13 अक्टूबर 23 को अपर मुख्य सचिव वन कंसोटिया की अध्यक्षता में एक विशेष बैठक बुलाई गई थी। बैठक में अतुल कुमार मिश्रा सचिव वन, अशोक कुमार पदेन सचिव, आरके गुप्ता तत्कालीन वन बल प्रमुख, अतुल कुमार श्रीवास्तव तत्कालीन पीसीसीएफ वर्किंग प्लान और अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक भू अभिलेख डॉ वीएस अन्नागिरी भी उपस्थित थे। यह बैठक में ग्राम झिन्ना एवं हरैया तहसील ढीमरखेड़ा जिला कटनी में स्वीकृत खनिज पट्टे विवाद के निराकरण के लिए बुलाई गई थी। इस कमेटी के निर्णय के बाद ही तत्कालीन एसीएस कंसोटिया ने एसएलपी वापस आदेश जारी किया। यह बात अलग है कि इसी आदेश के चलते ही उनसे वन मंत्रालय से हटा दिया गया।