पटवारी: किसानों के सेवक और योजनाओं के आधारस्तंभ, लेकिन सरकार का ‘दुश्मन’?

Patwari: Servant of farmers and pillar of schemes, but ‘enemy’ of the government?
मध्यप्रदेश के पटवारी—एक ऐसा अनोखा प्राणी, जिसे देख के किसान को तो राहत मिलती है, लेकिन सरकार की भृकुटियाँ तन जाती हैं। यह वो कर्मचारी है जो कागज़ों में सरकारी योजनाओं को मिट्टी में मिलाने का माद्दा रखता है, ताकि वो असल में किसान की ज़मीन पर उतर सकें। पटवारी, जो सीमांकन से लेकर नामांतरण तक के काम में हर किसान के लिए खड़ा होता है, उसे ही “दुश्मन” का तमगा मिल जाता है!
और वेतन? अरे भाई, 5200-20200 ग्रेड पे में तो पटवारी अपनी रोटी-सब्जी और चाय का खर्च भी संभाल लें, यही क्या कम है! बाकी राज्यों में अगर उन्हें मोटी तनख्वाह मिलती है, तो वो बेकार की बात है, आखिर ये तो मप्र के पटवारी हैं। अब 24 सालों से एक ही वेतन पर डटे रहना भी तो एक मिसाल है, न? उनके लिए सिर्फ़ 258 रु का आवास भत्ता और 300 रु का यात्रा भत्ता काफी है। सरकारी योजनाओं की वाहवाही लूटने में भले सरकार आगे हो, पर ज़मीन पर इन्हें लागू करवाने का सारा दायित्व पटवारियों पर है।
राजस्व महाअभियान की बात करें, तो पहले और दूसरे चरण में 80 लाख से अधिक मामलों का पटवारियों ने समाधान कर किसानों और आम जनता को राहत दी। लेकिन क्या मजाल कि सरकार ने कभी उनके इस योगदान का ढोल पीटा हो? तीसरे चरण में भी पटवारियों की भूमिका अहम रहेगी, लेकिन शायद फिर भी उनकी मेहनत का श्रेय कोई और ले जाएगा।
सरकारी तकनीक की हालत यह है कि ई-बस्ता में काम ऑनलाइन होते हैं, मगर पटवारी के पास उपकरणों की किल्लत ऐसी कि कुछ को 2017 में मोबाइल दिए गए थे, जो अब कबाड़ बन चुके हैं। साफ्टवेयर ऐसे हैं कि जैसे कठिनाइयों की मीनार खड़ी कर दी गई हो। हर रोज़ नए-नए प्रयोगों के बीच पटवारी, किसानों की सेवा में लगा हुआ है, फिर भी उसे “दुश्मन” कहना कितना उचित है?
यही तो विरोधाभास है कि किसान हितैषी को दुश्मन कहा जा रहा है। वो पटवारी जो सरकार की रीढ़ है, हर किसान के हक़ में खड़ा है, और जो बिना किसी नाम के सिर्फ़ अपने फर्ज को निभाता है, क्या उसे ये दुश्मनी का तमगा चाहिए?