संघ ने लोकसभा चुनाव में कोई हस्तक्षेप नहीं किया, जो दिख रहा है बात उससे कहीं कुछ ज्यादा है?
नागपुर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के पहिए दशकों से एक लय में एक गति से चल रहे हैं. जब नए इलाकों में पैर जमाने की बात आई तो संघ हमेशा आगे रहा. यहां RSS ने पहले जमीन तैयार की, फिर बीजेपी वहां पहुंची और राजनीतिक रूप से स्वयं को समृद्ध किया. अगर दोनों संगठनों के बीच ऐसा सहज समन्वय और सामंजस्य है तो संघ परिवार की ओर से फिर असहमति के स्वर क्यों? ये असंतोष के बुदबुदाहट क्यों? और बुदबुदाहट ही क्यों इंद्रेश कुमार ने तो अब खुली घोषणा कर दी है- अहंकारियों को प्रभु राम ने रोक दिया है.
दरअसल नागपुर में एक कार्यक्रम के दौरान आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के खिलाफ जब टिप्पणी की तो इस फुसफुसाहट के स्वर तेज हो गए और ये राष्ट्रीय बहस का विषय बन गई. टिप्पणियों का ये सिलसिला यहीं नहीं रुका. मोहन भागवत के बाद संघ के मुखपत्र पांचजन्य में लोकसभा चुनाव में बीजेपी के परफॉर्मेंस पर एक आलोचनात्मक लेख छपी शीर्षक था- लोकसभा चुनाव-2024/NDA: सबक हैं और सफलताएं भी.
'आर्गनाइजर' में भी टिप्पणी की गई. इन लेखों पर चर्चा हो ही रही थी कि संघ नेता इंद्रेश कुमार ने सार्वजनिक मंच से कहा कि 'राम सबके साथ न्याय करते हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव को ही देख लीजिए. जिन्होंने राम की भक्ति की, लेकिन उनमें धीरे-धीरे अंहकार आ गया. उस पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी बना दिया. लेकिन जो उसको पूर्ण हक मिलना चाहिए, जो शक्ति मिलनी चाहिए थी, वो भगवान ने अहंकार के कारण रोक दी.'
भागवत, इंद्रेश कुमार की टिप्पणियां ऐसे समय में आई है जब इस बात पर गहन चर्चा चल रही है कि क्या आरएसएस ने वास्तव में बीजेपी से दूरी बना ली है और 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान पूरे दिल से उसका समर्थन नहीं किया है.
मोहन भागवत ने आम चुनाव के बाद, जहां बीजेपी बहुमत से 30 सीटें पीछे रह गई थी, अपनी पहली टिप्पणी में प्राथमिकता के आधार पर मणिपुर के संघर्ष को समाप्त करने तथा सरकार और विपक्ष के बीच आम सहमति की आवश्यकता की बात कही थी.
मोहन भागवत ने कहा था, "एक सच्चा सेवक मर्यादा बनाए रखता है, वह काम करते समय मर्यादा का पालन करता है. उसमें यह अहंकार नहीं होता कि वह कहे कि 'मैंने यह काम किया'. केवल वही व्यक्ति सच्चा सेवक कहलाता है."
कुछ लोगों ने उनकी टिप्पणी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना के रूप में देखा, क्योंकि प्रधानमंत्री ने कई अवसरों पर स्वयं को जनता का "प्रधान सेवक" बताया था.
मोहन भागवत की हालिया टिप्पणियां, पहले की कई बार की तरह ही अस्पष्ट हैं.
भागवत के बाद बोले इंद्रेश कुमार
भागवत के बयान का लक्ष्य कौन है? इसका संदेश क्या है इस पर एक्सपर्ट कमेंट आ ही रहे थे कि संघ के बड़े फंक्शनरी इंद्रेश कुमार ने अपने बयान सारा धुंध साफ कर दिया. उन्होंने राजस्थान में एक बयान में स्पष्ट कहा कि अहंकारियों को प्रभु राम ने 241 पर रोक दिया है.
अब ये स्पष्ट है कि संघ पब्लिक प्लेटफॉर्म पर स्पष्ट मैसेज देना चाहता है. इंद्रेश ने बिना लाग-लपेट के कहा, "जिस पार्टी ने (भगवान राम की) भक्ति की, लेकिन अहंकारी हो गई, उसे 241 पर रोक दिया गया, लेकिन उसे सबसे बड़ी पार्टी बना दिया गया…"
उन्होंने आगे कहा, "लोकतंत्र में रामराज्य का विधान देखिए, जिन्होंने राम की भक्ति की लेकिन धीरे-धीरे अहंकारी हो गए, वो पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन जो वोट और ताकत मिलनी चाहिए थी, वो भगवान ने उनके अहंकार के कारण रोक दी."
इंद्रेश कुमार के इस बयान का वजन इतना है कि बीजेपी की ओर से कोई भी बड़े नेता ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है. कांग्रेस, शिवसेना जैसे विपक्षी दल और बीजेपी की सहयोगी जेडीयू ने इस पर जरूर अपनी प्रतिक्रिया दी है. लेकिन संघ द्वारा अहंकारी बतलाये जाने के बाद बीजेपी ने अपनी रक्षा में कुछ खास तर्क नहीं दिए हैं.
कैसे रहे हैं संघ और बीजेपी के रिश्ते?
आरएसएस और बीजेपी के बीच संबंध और संघ किस हद तक इस राजनीतिक पार्टी पर प्रभाव डालता है, यह हमेशा से चर्चा का विषय रहा है. इतना ही नहीं, आरएसएस पर शोधकर लिखी गई किताब के लेखक ने इस मुद्दे को "पुरानी बात" कहकर खारिज कर दिया.
लेकिन संघ-बीजेपी के इकोसिस्टम पर नजर रखने वाले लोग कहते हैं कि इस बार बात कुछ अलग है. वे भागवत की टिप्पणियों के समय की ओर इशारा करते हैं, जो एक ऐसे चुनाव के बाद आई है जिसमें भाजपा बहुमत के आंकड़े से पीछे रह गई और प्रधानमंत्री मोदी की बड़े और साहसिक निर्णय लेने की क्षमता को झटका लगा.
उनका कहना है कि हाल के वर्षों में नागपुर और अहमदाबाद के बीच पर्सनैलिटी की खींचतान चल रही है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की बढ़ती लोकप्रियता और उनके चुनावी वादों को पूरा करने के कारण सत्ता का केंद्र अहमदाबाद की ओर खिसक गया है.
लेखक और वरिष्ठ पत्रकार दीप हलदर ने इंडियाटुडे.इन से बातचीत में कहते हैं, "आरएसएस यह बात खुलकर नहीं कहने जा रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में भाजपा की प्रभावशाली भूमिका को लेकर संघ परिवार सहज नहीं है."
हालदार कहते हैं, "यह सिर्फ़ बीजेपी की सीटों की संख्या का मामला नहीं था, बल्कि राम मंदिर और अनुच्छेद 370 जैसे वादे भी थे, जिन्हें पीएम मोदी के कार्यकाल में पूरा किया गया था. खासकर 2019 में कार्यकाल की शुरुआत से ही बीजेपी नेतृत्व संघ से सलाह नहीं ले रहा था."
गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी आरएसएस प्रचारक रहे हैं और संघ की नजरों में वे आदर्श प्रधानमंत्री माने जाते हैं. सच्चाई तो ये है कि आरएसएस ने 2014 के आम चुनाव में उनके लिए अपने सभी सहयोगी संगठनों की ताकत लगा दी थी.
हालांकि, आरएसएस-भाजपा तंत्र के करीबी एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर इंडियाटुडे.इन को बताया कि उनका व्यापक आभामंडल और उनका सत्ता का केंद्र बन जाना नागपुर में संघ के कुछ वरिष्ठ पदाधिकारियों को पसंद नहीं आया.
बता दें कि आरएसएस राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा नहीं करता है. इसका रोल राह दिखाने का है. अपने व्यापक नेटवर्क के जरिए यह भाजपा की सफलता में भी मदद करता है, क्योंकि दोनों ही एक ही विचारधारा और सांस्कृतिक लक्ष्यों के लिए काम करते हैं.
इंडियाटुडे.इन से बात करने वाले दो अलग-अलग राज्यों के दो आरएसएस प्रचारकों ने कहा कि उन्होंने इस चुनाव में 2014 और 2019 के चुनावों से अलग कुछ भी नहीं किया. उन्होंने कहा कि ऐसा कोई संदेश नहीं था कि उन्हें इस बार कुछ अलग करने की जरूरत है.
हालांकि, दोनों संघ सदस्यों ने यह बताना नहीं भूला कि किस तरह बूथ स्तर के भाजपा कार्यकर्ता लापरवाह थे और संसाधन और पैसा पहुंचने के बावजूद वे गर्मी में प्रचार करने के लिए बाहर नहीं निकले.
क्या आरएसएस ने 2024 के चुनाव में भाजपा का समर्थन नहीं किया?
लेखक-पत्रकार दीप हलदर कहते हैं कि उन्हें आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बताया था कि संघ चाहता था कि भाजपा का 2024 का लोकसभा चुनाव अभियान मोदी की लोकप्रियता, राष्ट्रीय सुरक्षा और सांस्कृतिक-सभ्यतागत मुद्दों के तीन मुख्य बिन्दुओं पर फोकस हो. हालांकि, हुआ ये कि पूरा संदेश सिर्फ 'मोदी की गारंटी' तक सीमित रह गया.
आरएसएस नेतृत्व का मानना था कि ऐसे जटिल चुनावी युद्ध में, जहां पूरा विपक्ष भाजपा के खिलाफ एकजुट हो गया है, पार्टी एक इतने आसान से नैरेटिव के साथ आगे नहीं बढ़ सकती है.
इस चर्चा के दौरान जेपी नड्डा के उस बयान को कौन भूल सकता है. भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए साक्षात्कार में कहा था कि भाजपा के पास अब माकूल संगठनात्मक ढांचा है और वह अब आरएसएस पर निर्भर नहीं है. निश्चित रूप से इस बयान ने संघ को तीखी चुभन दी होगी.
हालदार कहते हैं, "ऐसा लगता है कि संघ ने उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में कोई हस्तक्षेप नहीं किया." बंगाल और उत्तर प्रदेश दो महत्वपूर्ण चुनावी रणक्षेत्र थे और भाजपा को दोनों ही जगहों पर करारी हार का सामना करना पड़ा.
विशेषज्ञों के अनुसार, आरएसएस के भीतर यह भावना है कि विपक्ष से दलबदलुओं के लगातार भाजपा में शामिल होने से पार्टी की मूल विचारधारा कमजोर हुई है और संघ के साथ इसका जुड़ाव कमजोर हो रहा है.
इसके अलावा जमीन पर दोनों संगठनों के बीच सहयोग की कमी भी अहम मसला हो सकता है.
दिल्ली के रोहिणी इलाके के एक भाजपा सदस्य जो आरएसएस में शामिल हो गए हैं, कहते हैं कि पहले संघ भाजपा सदस्यों को अपनी बात रखने के लिए प्रशिक्षण शिविर आयोजित करता था. चुनाव का मौसम हो या न हो, शिविरों का आयोजन नियमित रूप से होता था. हालांकि, पिछले एक साल से इस इलाके में ऐसा कोई प्रशिक्षण शिविर आयोजित नहीं हुआ है, जबकि यह आम चुनाव का साल था.
सुदर्शन और अटल के बीच असहज रिश्ते
संघ लगभग 100 साल पुराना संगठन है. RSS ने बीजेपी और इसके पूर्ववर्ती अवतार जनसंघ को समर्थन दिया है. लेकिन ऐसे भी मौके आए जब दोनों संगठनों के बीच रिश्ता असहज भी हुआ.
वाजपेयी ने 1995 में ऑर्गनाइजर में लिखे एक लेख में संघ को अपनी आत्मा बताया था. उन्होंने लिखा था, "आरएसएस के साथ लंबे जुड़ाव का सीधा कारण है कि मैं संघ को पसंद करता हूं. मैं उसकी विचारधारा पसंद करता हूं और सबसे बड़ी बात, लोगों के प्रति और एक दूसरे के प्रति आरएसएस का दृष्टिकोण मुझे भाता है और यह बस आरएसएस में मिलता है."
हालांकि प्रधानमंत्री बनने के बाद एक दौर ऐसा भी आया, जब उनके संघ से रिश्ते कुछ असहज हो चले थे. यह दौर था संघ में सर संघचालक बने केएस सुदर्शन का. उस वक्त संघ और सहयोगी संगठनों के नेता व्यक्तिगत हमले करने से भी नहीं चूकते थे.जबकि संघ में व्यक्तिगत नहीं नीतिगत आलोचना की परंपरा रही है.
अब RSS और बीजेपी के बीच क्या होगा?
वाजपेयी-सुदर्शन काल के बाद बीजेपी-संघ के बीच रिश्तों में तब गर्मजोशी आई जब मोहन भागवत 2009 में सरसंघचालक बने. ये वो समय था जब बीजेपी को दो हार के बाद मजबूत समर्थन की जरूरत थी.
इसके बाद दोनों एक दूसरे की जरूरतों के प्रति संवेदनशील रहे.
लेकिन मौजूदा परिस्थितियों पर टिप्पणी करते हुए एक वरिष्ठ पत्रकार करते हैं, "भाजपा के डीएनए में आरएसएस है, लेकिन अब पार्टी बड़ी हो गई है और उसने पूरी तरह से अलग व्यक्तित्व हासिल कर लिया है. हालांकि उनके वैचारिक लक्ष्य एक जैसे हैं, लेकिन इसे हासिल करने के लिए एक संगठन द्वारा अपनाया गया तरीका दूसरे के लिए अनुकूल नहीं हो सकता है."
वो आगे कहते हैं, "ये भी संभव है कि आरएसएस ने बीजेपी को ऐसी स्वायत्तता दी है ताकि उसकी शक्ति में बढ़ोतरी हो, अब हमें देखने की जरूरत है कि ये रिश्ता आगे चलकर कैसे आकार लेता है."
2019 के चुनाव के बाद भाजपा ने संघ के साथ अपने संबंधों को ठंडे बस्ते में नहीं डाला. बल्कि हाल ही में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा नियुक्त चार मुख्यमंत्रियों – मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और ओडिशा, का आरएसएस से मजबूत संबंध है.
दीप हलदर के अनुसार, "यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी 3.0 में संघ किस तरह से खुद को फिर से स्थापित करता है, खासकर अब जबकि भाजपा लोकसभा में बहुमत के आंकड़े से काफी दूर है. हलदर कहते हैं, "हालांकि, संघ की वापसी का सार्वजनिक ढिंढ़ोरा नहीं पीटा जाएगा."
संघ खुद को फिर से स्थापित करने में कितना सक्षम है, इसका सबसे तात्कालिक परीक्षण भाजपा अध्यक्ष के चयन में दिखाई दे सकता है. अगर दोनों संगठनों के बीच रिश्तों का रिसेट बटन दबाया जाता है तो फिर यह नागपुर और अहमदाबाद के बीच सत्ता संतुलन में दिखाई देगा.
एक बात तो तय है, भाजपा और संघ एक दूसरे से जुड़े हैं, मिले हुए हैं. जैसा कि साथ रहने में मतभेद हो सकता हैं, लेकिन यहां सीधे टकराव की नौबत नहीं आएगी.