September 20, 2025

कुतुब मीनार का बंद दरवाज़ा: 1981 की भगदड़ में 45 मौतें, क्यों 44 साल से पर्यटकों के लिए बंद है प्रवेश?

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Why are the doors of Qutub Minar closed for 44 years: Read the report

  • 4 दिसंबर 1981 के दिन ने लिखा काला अध्याय Qutub Minar of closed door

नई दिल्ली। Qutub Minar of closed door यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल दक्षिण दिल्ली के महरौली क्षेत्र का कुतुब कॉम्प्लेक्स हर साल लाखों पर्यटकों को अपनी ओर खींचता है। दुनिया की सबसे ऊँची ईंट से बनी मीनार कहे जाने वाली कुतुब मीनार केवल स्थापत्य कला और ऐतिहासिक वैभव का प्रतीक ही नहीं है, बल्कि इसके भीतर एक ऐसा दर्दनाक अतीत भी छिपा है, जिसने इसकी पहचान को हमेशा के लिए बदल दिया। 1981 में हुए एक हादसे ने इस स्मारक के दरवाजे जनता के लिए स्थायी रूप से बंद कर दिए।

स्थापत्य और ऐतिहासिक महत्व Qutub Minar of closed door

कुतुब मीनार की नींव कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 में रखी थी, जिसे बाद में इल्तुतमिश और फिर फिरोज शाह तुगलक ने पूरा कराया। करीब 73 मीटर ऊँची यह मीनार पाँच मंज़िलों में बनी है। लाल और पीले बलुआ पत्थर पर की गई बारीक नक्काशी इसे देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती है। यह केवल स्थापत्य का अद्भुत नमूना नहीं, बल्कि दिल्ली सल्तनत के गौरव और उस दौर की तकनीकी क्षमता का प्रमाण भी है।

कभी खुला था आम जनता के लिए Qutub Minar of closed door

आज यह स्मारक केवल बाहर से निहारा जा सकता है, लेकिन एक समय था जब पर्यटकों को इसके भीतर प्रवेश और संकरी सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने की अनुमति थी। लोग झरोखों से दिल्ली का मनोरम नज़ारा देखते और इस अद्भुत स्मारक का रोमांचक अनुभव अपने साथ ले जाते। स्कूलों और कॉलेजों के बच्चे शैक्षणिक भ्रमण पर यहाँ आना अपनी उपलब्धि मानते थे।

4 दिसंबर 1981: वह काला दिन Qutub Minar of closed door

इतिहास के पन्नों में दर्ज यह तारीख कुतुब मीनार के लिए अभिशाप बन गई। उस दिन सुबह से ही मौसम खराब था। आसमान में बादल छाए थे और दोपहर होते-होते बिजली आपूर्ति बाधित हो गई। संकरी और अंधेरी सीढ़ियों के भीतर लगभग 300 से अधिक लोग मौजूद थे।

इसी दौरान अफरातफरी मच गई। बताया जाता है कि किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ हुई और वह घबराकर नीचे की ओर भागी। अंधेरे में किसी ने यह अफवाह फैला दी कि मीनार गिर रही है। घबराहट और भगदड़ का ऐसा माहौल बना कि चीख-पुकार से सीढ़ियाँ गूँज उठीं।

त्रासदी का मंजर
कुछ ही मिनटों में भगदड़ ने भयावह रूप ले लिया। लोग एक-दूसरे पर गिरने लगे, बच्चों और महिलाओं की चीखें दूर तक सुनाई दीं। इस अफरातफरी में 45 से अधिक लोगों की मौत हो गई, जिनमें ज्यादातर स्कूली बच्चे थे जो पिकनिक के लिए आए थे। कई अन्य गंभीर रूप से घायल हुए। दिल्ली के अस्पतालों में उस दिन का नज़ारा किसी युद्ध जैसी त्रासदी से कम नहीं था।

स्थायी ताले की शुरुआत
हादसे के बाद केंद्र सरकार और पुरातत्व विभाग ने तुरंत बड़ा फैसला लिया। सुरक्षा कारणों से कुतुब मीनार के भीतर पर्यटकों का प्रवेश हमेशा के लिए बंद कर दिया गया। तभी से, यानी पिछले 44 सालों से, लाखों लोग केवल बाहर से इस ऐतिहासिक धरोहर को निहारने तक ही सीमित हैं।

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सवाल और सीख
इस घटना ने देशभर में स्मारकों और सार्वजनिक स्थलों की सुरक्षा पर गहन बहस छेड़ी। सवाल उठे कि क्या पर्याप्त रोशनी और निगरानी होती तो यह हादसा टल सकता था? क्या भीड़ नियंत्रण के उपाय किए जा सकते थे? हालांकि समय के साथ तकनीकी सुविधाएँ काफी बेहतर हो चुकी हैं, पर कुतुब मीनार का दरवाजा अब भी बंद है।

आज भी वही कसक
दिल्ली घूमने आने वाले पर्यटक जब कुतुब मीनार के पास पहुँचते हैं तो उसकी भव्यता उन्हें रोमांचित करती है। लेकिन भीतर प्रवेश न मिलने पर निराशा भी होती है। बहुत से बुजुर्ग लोग आज भी बताते हैं कि उन्होंने बचपन में कुतुब मीनार की सीढ़ियाँ चढ़ी थीं और ऊपर से दिल्ली का नजारा देखा था। नई पीढ़ी उस अनुभव से वंचित है।

कुतुब मीनार सिर्फ एक स्थापत्य धरोहर नहीं, बल्कि हमारे अतीत की चेतावनी भी है। यह याद दिलाती है कि सुरक्षा चूक कितनी बड़ी त्रासदी का कारण बन सकती है। 1981 की भगदड़ ने न केवल मासूम जिंदगियाँ छीनीं, बल्कि एक अनोखी परंपरा को भी हमेशा के लिए खत्म कर दिया। आज जब हम इसकी सुंदरता को बाहर से निहारते हैं, तो साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि इतिहास केवल गौरवशाली नहीं होता, उसमें वे पीड़ादायक किस्से भी दर्ज रहते हैं जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता।

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