किसानों की चिंता या राजनीति की फसल? सत्ता और विपक्ष में ‘समानता’ का दुर्लभ संगम!

किसानों की चिंता या राजनीति की फसल? सत्ता और विपक्ष में ‘समानता’ का दुर्लभ संगम!
Concern for farmers or a political harvest? A rare confluence of “equality” between the ruling party and the opposition!
चंदा कुशवाह (संवाददाता)
आगर-मालवा। मालवा की धरती पर इस बार सिर्फ सोयाबीन ही नहीं, बल्कि नेताओं का “किसान प्रेम” भी खूब फल-फूल रहा है। असमय वर्षा और येलो मोज़ेक वायरस से बर्बाद हुई फसल ने जहाँ किसानों की कमर तोड़ दी है, वहीं राजनीति के गलियारों में अचानक एक जैसी चिंता उभर आई है — और वो भी दोनों खेमों में एक साथ!
3 अक्टूबर को भाजपा जिलाध्यक्ष ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि “किसानों की फसलें भारी नुकसान में हैं, सरकार तुरंत राहत राशि दे।”
यानी अपनी ही पार्टी की सरकार को अब अपनी पार्टी के नेता ही “स्मरण पत्र” भेजकर याद दिला रहे हैं कि खेत में दर्द है, ध्यान दीजिए साहब।
लेकिन अगले ही दिन 4 अक्टूबर को कांग्रेस जिलाध्यक्ष विजयलक्ष्मी तंवर ने भी वही मुद्दा उठाया — बस अंदाज़ थोड़ा बदल गया। उन्होंने ज्ञापन देकर मुख्यमंत्री से मांग की कि “किसानों को तत्काल मुआवजा दिया जाए और नुकसान का सर्वे कराया जाए।”
अब जनता के बीच चर्चा गर्म है —
“भाई, अगर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों एक ही बात कह रहे हैं, तो फर्क आखिर बचा कहाँ है?”
लोगों का कहना है कि यह पहली बार है जब दोनों दलों के सुर इतने मधुर सुनाई दिए — मुद्दा किसान का था, तो सुर अपने आप मिल गए।
गाँव के एक बुजुर्ग किसान ने हँसते हुए कहा —
“जिस खेत की मिट्टी में किसान का पसीना है, वहीं नेताओं का बयान भी अंकुरित हो जाता है।”
कुल मिलाकर मालवा में किसान दुखी हैं, लेकिन नेताओं के बयान खिल-खिला रहे हैं —
फसल चौपट सही, पर राजनीति की खेती खूब लहलहा रही है!