March 10, 2025

अमीरों के चक्कर में बेचारा गरीब पिसता ,हल्दी रस्म या फिजूल खर्ची

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Haldi ritual or wasteful expenditure, the poor suffer for the sake of the rich.

  • आज कल ग्रामीण परिवेश में होने वाली शादियों में एक नई रस्म का जन्म हुआ है हल्दी रस्म।

ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे घरों में फिजूल खर्ची में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है जिनके मां-बाप ने हाड़-तोड़ मेहनत और पसीने की कमाई से पाई-पाई जोड़ कर मकान का ढांचा खड़ा किया लेकिन ये नवयौवन लड़के-लड़कियां बिना समझे अपने मां- बाप की हैसियत से विपरीत जाकर अनावश्यक खर्चा करते हैं।

हल्दी रस्म के दौरान हजारों रूपये खर्च कर के विशेष डेकोरेशन किया जाता है, उस दिन दूल्हा या दुल्हन विशेष पीत (पीले) वस्त्र धारण करते हैं। साल 2020 से पूर्व इस हल्दी रस्म का प्रचलन ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं पर भी देखने को नहीं मिलता था, लेकिन पिछले साल दो-तीन साल से इसका प्रचलन बहुत तेजी से ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ा है।

पहले हल्दी की रस्म के पीछे कोई दिखावा नहीं होता था, बल्कि तार्किकता होती थी। पहले ग्रामीण क्षेत्रों में आज की तरह साबुन व शैम्पू नहीं थे और ना ही ब्यूटी पार्लर था। इसलिए हल्दी के उबटन से घिसघिस कर दूल्हे-दुल्हन के चेहरे व शरीर से मृत चमड़ी और मेल को हटाने, चेहरे को मुलायम और चमकदार बनाने के लिए हल्दी, चंदन, आटा, दूध से तैयार उबटन का प्रयोग करते थे। ताकि दूल्हा-दुल्हन सुंदर लगे। इस काम की जिम्मेदारी घर-परिवार की महिलाओं की थी। लेकिन आजकल की हल्दी रस्म मोडिफाइड, दिखावटी और मंहगी हो गई है। जिसमें हजारों रूपये खर्च कर डेकोरेशन किया जाता है। महंगे पीले वस्त्र पहने जाते है। दूल्हा दुल्हन के घर जाता है और पूरे वातावरण, कार्यक्रम को पीताम्बरी बनाने के भरसक प्रयास किये जाते हैं। यह पीला ड्रामा घर के मुखिया के माथे पर तनाव की लकीरें खींचता है जिससे चिंतामय पसीना टपकता है।

आजकल देखने में आ रहा है कि ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक रूप से असक्षम परिवार के लड़के भी इस शहरी बनावटीपन में शामिल होकर परिवार पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ा रहे है। क्योंकि उन्हें अपने छुट भईए नेताओं, वन साइड हेयर कटिंग वाले या लम्बे बालों वाले सिगरेट का धुंआ उड़ाते दोस्तों को अपना ठरका दिखाना होता है। इंस्टाग्राम, फेसबुक आदि के लिए रील बनानी है। बेटे के रील बनाने के चक्कर में बाप की कर्ज़ उतरने में ही रेल बन जाती है।

जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हो उन परिवारों के बच्चों को मां-बाप से जिद्द करके इस तरह की फिजूल खर्ची नहीं करवानी चाहिए। आजकल काफी जगह यह भी देखने को मिलता है कि बच्चे (जिनकी शादी है) मां-बाप से कहते है आप कुछ नहीं जानते, आपको समझ नहीं है, आपकी सोच वही पुरानी अनपढ़ों वाली रहेगी, यह कहते हुए अपने माता-पिता को गंवारू, पिछड़ा, थे तो बौझ्अ बरगा हो कहते हैं। मैं जब भी यह सुनता हूं सोचने को विवश हो जाता हूं, पांव अस्थिर हो जाते हैं। बड़ी चिंता होती हैं कि मेरा युवा व छोटा भाई-बहिन किस दिशा में जा रहे हैं।

इस तरह की फिजूलखनों वाली रस्म को रोकने के समाचार पढ़ कर खुशी होती है लेकिन अपने घर, परिवार, समाज, गांव में ऐसे कार्यक्रम में शरीक होकर लुत्फ उम्र रहे हैं, फोटो खिचवाकर स्टेटस लगा रहे हैं। फिर तो वही बात हो गई कि तुझे रोकना तो चाहता हूं, मगर तू रूकना नहीं, मुझे तेरी महफिल में रोकना तो बाह रहे है मगर तू रुकना नहीं हमें महफिल में शरीक होना है, यानि कथनी और करनी में अंतर स्याह है।

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