काम के बोझ से दबे हुए रेलवे के सभी विभागों के वरिष्ठ पर्यवेक्षकों को ग्रेड-पे 4800/- & ग्रेड-पे 5400/- (पे-लेवल -8, पे-लेवल -9 ) कैसे मिले ?

How did the Senior Supervisors of all departments of Railways
How did the Senior Supervisors of all departments of Railways, who are burdened with work, get Grade Pay 4800/- & Grade Pay 5400/- (Pay Level -8, Pay Level -9)?
- उच्चतम वेतनमान और मैचिंग-सरेंडर: नैसर्गिक न्याय का माखौल ………
आमला/बैतूल (हरिप्रसाद गोहे) !लगभग दो वर्ष पूर्व जारी हुआ रेलवे का एक आदेश कार्यबोझ से दबे कर्मचारियों के विषाद का विषय बना हुआ है। यह प्रावधान रेलवे सुपरवाइज़रों को उच्चतम वेतनमान ग्रेड-पे 4800/- एवं ग्रेड-पे 5400/- (पे-लेवल -8, पे-लेवल -9 ) में पदोन्नति देने से संबंधित है, जिसमें एक अजीब शर्त जोड़ी गई है – उनके अपने विभाग से कुछ पदों को “मैचिंग-सरेंडर” करना। सतह पर यह नीति विभागीय संसाधनों के संतुलन और कुशलता को बढ़ाने का प्रयास लगती है, लेकिन गहराई में जाएं तो यह अव्यवस्था, अन्याय और कर्मचारियों के साथ भेदभाव की एक दर्दनाक कहानी बयां करती है।
प्रावधान की दोहरी मार ………
इस नीति के तहत, जिन विभागों में “फालतू कर्मचारियों” की भरमार है, वहां सुपरवाइज़रों को आसानी से उच्चतम वेतनमान में पदोन्नति मिल गई। उनके विभाग से कुछ पदों को सरेंडर कर दिया गया, और यह प्रक्रिया उनके लिए एक औपचारिकता मात्र बनकर रह गई। लेकिन दूसरी ओर, वे विभाग जहां स्टाफ की कमी है या कर्मचारी पहले ही अत्यधिक कार्यबोझ तले दबे हुए हैं, वहां यह शर्त एक अभिशाप बन गई। इन विभागों मे सरेंडर करना संभव ही नहीं है, क्योंकि हर कर्मचारी पहले से ही अपनी क्षमता से अधिक काम कर रहा है। नतीजा? रेलवे के कुछ विभागों के सुपरवाइज़र अब तक उच्चतम वेतनमान ग्रेड-पे 4800/- & ग्रेड-पे 5400/- (पे-लेवल -8, पे-लेवल -9 ) से वंचित हैं।
यहां सवाल उठता है – क्या मेहनती और समर्पित कर्मचारियों को दंडित करना और निकम्मेपन को पुरस्कृत करना नैसर्गिक न्याय है? क्या यह नीति कर्मचारियों के बीच समानता और प्रोत्साहन की भावना को बढ़ाती है, या इसे कुचलती है?
नौकरशाही अव्यवस्था का नमूना …………
यह प्रावधान नौकरशाही अव्यवस्था (Bureaucratic Chaos) का एक जीता-जागता उदाहरण है। नौकरशाही अव्यवस्था तब उत्पन्न होती है, जब नीतियां बनाते समय जमीनी हकीकत को नजरअंदाज कर दिया जाता है और एक समान नियम सभी पर थोप दिए जाते हैं, भले ही परिस्थितियां भिन्न हों। इस मामले में, नीति निर्माताओं ने यह नहीं सोचा कि हर विभाग की अपनी जरूरतें और चुनौतियां होती हैं। जहां एक विभाग में अतिरिक्त कर्मचारी हो सकते हैं, वहीं दूसरा विभाग न्यूनतम स्टाफ के साथ संचालित हो रहा हो। एक ही छड़ी से सबको हांकने की कोशिश ने व्यवस्था को और उलझा दिया है।
प्रभावित कर्मचारियों का दर्द
कल्पना करें उस सुपरवाइज़र की मन:स्थिति का, जो दिन-रात मेहनत करता है, अपने सीमित संसाधनों के साथ विभाग को चलाता है, और फिर उसे पता चलता है कि उसकी मेहनत का इनाम नहीं, बल्कि सजा मिलेगी। दूसरी ओर, वह अपने समकक्ष को देखता है, जिसके विभाग में काम का बोझ कम है और कर्मचारी अधिक हैं, और उसे आसानी से पदोन्नति मिल जाती है। यह केवल पदोन्नति का मामला ही नहीं है, बल्कि एक भावनात्मक आघात भी है।
“हम दिन-रात काम करते हैं, छुट्टियां तक नहीं लेते, फिर भी हमें पीछे छोड़ दिया जाता है। क्या हमारा मेहनत करना ही हमारी गलती है?” – यह कहना है हर एक प्रभावित सुपरवाइज़र का, जिसकी आवाज में निराशा और गुस्सा साफ झलकता है। ऐसे कर्मचारी न केवल अपने अधिकारों से वंचित हो रहे हैं, बल्कि उनकी कार्यक्षमता और मनोबल पर भी गहरा असर पड़ रहा है।
नैसर्गिक न्याय कहां है ? ……..
नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत कहता है कि हर व्यक्ति को उसकी योग्यता और परिस्थिति के आधार पर समान अवसर मिलना चाहिए। लेकिन इस प्रावधान में तो उल्टा हो रहा है। जहां कार्य बोझ कम और स्टाफ़ अधिक है उन्हें इनाम मिला, और जहाँ स्टाफ़ कम और कार्य बोझ अधिक उन्हें दंड। यह नीति कर्मचारियों के बीच असमानता को बढ़ावा दे रही है और मेहनत करने की भावना को कुचल रही है। क्या यह उचित है कि पदोन्नति का आधार आपकी मेहनत न हो, बल्कि यह हो कि आपके विभाग में कितने “फालतू” कर्मचारी हैं ?
निष्कर्ष और सुझाव …….
यह प्रावधान न केवल अव्यवहारिक है, बल्कि नैतिक रूप से भी गलत है। इसे तत्काल संशोधित करने की जरूरत है। विभागों की वास्तविक स्थिति को ध्यान में रखते हुए लचीले नियम बनाए जाने चाहिए। उदाहरण के लिए, जिन विभागों में स्टाफ की कमी है, वहाँ सरेंडर की शर्त को हटाया जा सकता है या वैकल्पिक मानदंड तय किए जा सकते हैं। साथ ही, कर्मचारियों की मेहनत और योगदान को मापने के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि कोई भी अपने अधिकारों से वंचित न हो।
अंत में, यह सवाल पूछना जरूरी है – क्या हम ऐसी व्यवस्था चाहते हैं, जहां मेहनत की सजा और निकम्मेपन का इनाम मिले? अगर नहीं, तो इस जारी नौकरशाही अव्यवस्था को खत्म करने का समय आ गया है, ताकि प्रभावित कर्मचारियों के साथ न्याय हो सके और उनका दर्द सुना जा सके।
वीरेंद्र कुमार पालीवाल
सेवानिवृत्त स्टेशन प्रबंधक
(लेखक स्वयं इस अव्यवस्था का शिकार हुआ है)